Thursday 18 October 2018

हर सफर और नया शहर नए रँगों में जब डुबोता है

अब दिन भर घर से बाहर रहकर खोल के नज़रें सोता है
शायद अकेले गुज़ारा वक़्त खाली मन टटोलता है

हर सफर और नया शहर नए रँगों में जब डुबोता है   
अनजाने में न जाने दिमाग की कितनी खिड़कियाँ खोलता है 

ना खुद से ना किसी और से बोलने को यह लफ्ज़ पिरोता है 
कुछ समय से कुछ नहीं कहना ऐसा रस घोलता है

भटकने में इधर से उधर क्या घटा क्या बढ़ा नहीं तोलता है 
मेरा मन मुझसे बस किसी खोज में रहने को बोलता है

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